दमन न करते हुए भी दमदार- द

दमन न करते हुए भी दमदार- द

दम हो तो दिखा...इस धमकी को वही समझ सकता है जो इतना दम रखता है। एक दम के कितने अर्थ, ‘दमभर जो उधर मुँह फेरे’ गीत याद है आपको...दमखम के अलग मायने और दम मारने से अलग, दम मारना किसी लत के संदर्भ में आता है और दंभ कह दें तो दर्प या अभिमान हो जाता है। दम देना मतलब धमकाना तो दम रखना मतलब हिम्मत होना। दम में आ की मात्रा लगा दो दमा हो जाएगा और दंगा में से आ की मात्रा हटाते ही यह दंग भी कर देता है। द्रव और द्रव्य का और द्वार और द्वारा का अंतर भी यह द बताता है।

द की बारहखड़ी तो पता ही होगी- द, दा, दि, दी, दु, दू, दे, दै, दो, दौ, दं दः। यदि पहले तो आखर लें तो ददा मतलब दादा जो मराठी में बड़ा भाई और हिंदी में दादाजी हो गए, ब्रज भाषा में बड़े भाई को दाऊ कहते हैं। दूसरे दो संबोधन लिए तो दीदी, फिर छोटे बच्चे दूध को क्या कहते हैं दुदू और किसी को कुछ देने के बारे में आग्रह पूर्वक कहा जाए तो होगा- दे दे। संख्यांक में एक इकाई है तो दो दहाई, बृज भाषा में यही ‘दौ’ हो जाता है। अब दा और दी से दादी हो गई तो दी और दे से ‘दीदे फाड़ना’ मतलब आँखें ततेरेरकर देखना हो जाता है।

दई मारा

त वर्ग के इस तीसरे व्यंजन की महाप्राण ध्वनि ध है। इसके बारे में दिलचस्प यह है कि यदि यह किसी दूसरे व्यंजन के पहले आ जाए तो आधा हो जाता है जैसे उद्दीप्त या वाद्य या द्वार ही। र से मिल जाए तो द्रव्य वाला द्र हो जाता है या गुरु द्रोणाचार्य की याद दिलाता है लेकिन यदि र पहले आ जाए तो रफ़ार हो जाता है और मर्द या गर्द बन जाता है तो अब आप सर्द को सद्र न लिखिएगा। इस पर आप कह सकते हैं ‘दई मारा’...यह एक बोलचाल का मुहावरा है जो दंग रह जाने पर प्रयुक्त होता है। द के दर्पण की दर्शनाभिलाषा हो तो दलगत विचारों से बाहर निकल द के दर्शनीय द्वीप की ओर चलते हैं।

दखल और दखलअंदाजी

हिंदी के साथ दक्षिण की जिसे दकन या दक्खिन की हिंदी या दक्खिनी भी कहते हैं, अपनी अलग पहचान रखती है। कई तर्जुमों में दाता को माई-बाप भी कहते हैं। आज इस तरह की सोच को कई बार दकियानूसी समझ लिया जाता है लेकिन दक्षता हासिल करने के लिए माता-पिता और गुरु के स्थान को कैसे नकारा जा सकता है? गुरु दीक्षा और दक्षिणा का अपना महत्व है। वे अपने क्षेत्र में पूरा दखल रखते हैं। दखल रखने और दखलअंदाजी करने में बहुत अंतर होता है। गुरु से दगा करने वाले से बड़ा दगाबाज़ और कोई नहीं हो सकता। गुरु के दग्ध हो जाने पर केवल दचकने से कुछ नहीं होगा।

दम-दिलासा

इन सारी बातों से दंग होकर कोई दढ़ियल दाँत में दतौन दबाए सोच सकता है कि यह सब चल क्या रहा है? दरअसल सबसे बड़े गुरु दत्त, दत्तात्रेय माने गए हैं और उनकी तरह की एकाग्रता आ जाने को दत्त चित्त होना कहते हैं। दत्तोपनिषद में दत्त विधान का जिक्र है। विधि-विधान से या कानूनन दत्तक पुत्र भी ददिहाल में समान अधिकार रखता है। अपने बेटे को दधि देते समय दत्तक आए को भी दूध-दही देते समय ददोड़ा नहीं उठना चाहिए। इस बात पर कोई दनदनाने लग जाए तो देव और दानव में क्या अंतर रह जाएगा? यदि कोई ऐसा करते दिखे तो दबंगता दिखाते हुए तुरंत दबा देना चाहिए।

ऐसी बातों को वहीं के वहीं दफ़न कर देना चाहिए, दरोगा के दफ़्तर में दर्ज कराने नहीं ले जाना चाहिए। ऐसे लोग दबकर चलें तो ही बेहतर है। इसका मतलब किसी को बेवजह दबाना नहीं है, किसी से पैर नहीं दबवाने, दबी-ढकी कोई बात नहीं कहनी। दबे-कुचले लोगों के साथ खड़े होना चाहिए। दलितोद्धार करना हो तो उन पर कोई दबाव नहीं डालना चाहिए। उन्हें दस्यु या दब्बू बना दबोचकर नहीं रखना चाहिए। दम-दिलासा देना चाहिए और ऐसे दहल जाना चाहिए कि सब दमक उठे, पर वैसी भी नहीं कि दमकल विभाग को आना पड़ जाए।

द की दरकार

यह देदीप्यमान होने की बात है। जिसके हाथ में दमड़ी होती है वह अपना दमखम रखता है पर वह दमघोंटू वातावरण बना दे तो नहीं चलेगा। दमन न करते हुए भी दमदार रहने की खासियत होना चाहिए। दयनीय न होना है, न किसी को होने देना है। दयावान् होना चाहिए, दयाशील बनना चाहिए। दयालु के लिए दर्जनों शब्द मिल सकते हैं, जैसे दयानिधान, दयानिधि, दयामय, दीन-दयाल, दयावंत, दयावान, दयासागर, दयासिंधु...। द की इतनी सी दरकार है कि उससे कोई दरक न जाए, कोई दरकिनार न रह जाए।

किसी दरगाह के दरख़्त के नीचे खड़े होकर इस दरख़्वास्त को मान भी लिया जाए। ऐसा दर्जेदार दर्जी बना जाए जो सुख का कपड़ा सील दे और दुःख-दर्द के दरदरे कपड़े को दूर कर दे। किसी की दरबानी करनी हो तो एक ही ईश्वर का दरबारेआम हो और दरमाहा सब उसी एक के दरबार में खड़े रहें। उसके और आपके दरमियान कोई दरवाज़ा न हो और दर्शन देने देव स्वयं चले आए। दरिंदगी किसी दराज से न झाँके, कोई दानव या दरिंदा न हो। दरिद्रनारायण सबकी दर्शित दरिद्रता को दरियादिली से दरियाई घोड़े पर दूर रवाना कर दें। कोई उसके दलदल में न फँस पाए।

दवा-दुआ

दल बदलू बनने, दलाली लेने जैसे कई दाँव लगाकर और कई दलीलें देकर भी दिनदहाड़े दिल दिहलाने वाले कांड कर देने से भी जीत नहीं सकते। दवाखाने में जाने पर कई बार सुनने को मिलता है, दवा की नहीं, दुआ की ज़रूरत होती है वैसे ही हालात है। मर्ज़ पर सही समय दवा-दारु नहीं की गई तो किस्मत की दवात से आपके हिस्से दावत लिखी है या दावानल कोई नहीं जान सकता। दानी और दाना में एक मात्रा का अंतर है लेकिन अर्थ बदल जाता है। वैसे तो दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा कहा गया है पर आपको दशभुज बनना है या दशांश रह जाना है या खुद को दशमलव तक सीमित करना है?

दशानन की तरह बनेंगे तो दशहरे पर दहन जाएगा, क्यों न राजा दिलीप के वंशज राजा दशरथ की तरह बना जाए। पर किस दशा में वे दिवंगत हुए, उन्हें देह त्यागनी पड़ी, यह भी सब जानते हैं। दैहिक-दैविक ताप हरने वाले राम-सीता इस दंपत्ति के साथ देश त्याग लक्ष्मण भी वनवास पर गए थे। वन में राक्षसों और जंगली जानवरों की दहशत ऐसी थी कि लक्ष्मण ने सीता के लिए दहलीज़ पर लक्ष्मण रेखा खींच दी थी। रावण जब ले गया तो दहाड़ मार रो पड़ी थी सीता। तब दहेज का वैसा चलन नहीं था, स्त्रीधन के नाम पर जो कुछ था, उन्हीं आभूषणों को मार्ग पर छोड़ती गई थी सीता कि वह दाएँ या दाईं ओर जा रही थी या बाईं ओर। एक दाई मतलब दाई माँ भी होती है, इतिहास में पन्ना धाय महान् दाईमाँ हो गई है।

दार्शनिक के दालान

ख़ैर...यदि जीवन को दिशा दे दी तो दशावतार की कहानी का दसवाँ हिस्सा भी आपके जीवन को सार्थक बना सकता है। समय की दस्तक को जिसने पहचान लिया उसके दस्तख़त वे हस्ताक्षर बन जाते हैं जिन्हें हर कोई लेना चाहता है। दस्तूर से हटकर काम किया जाए तो दस्ती को दस्ताने बना काम करने की ज़रूरत नहीं रह जाती, आप स्वयं दुहिता हो जाते हैं,आपका अपना दस्ता होता है। अपना दाम आपको खुद तय करना पड़ता है। द से दामन भी होता है तो दामिनी भी और स्त्री का दायरा दोनों रूपों तक विशाल फैला है। दुल्हन बना अपनी बेटी को बिदा करते हुए दामाद को वह दायाद का दायित्व देती है इस विश्वास के साथ कि दौलतमंद न भी रहा तब भी दुर्भाग्य को दुर्बलता नहीं बनाएगा और दारुणता न दिखा वह भी अपने लिए नई द्वारिका बसा लेगा। इस दौरान ये विचार दार्शनिक के दालान तक ले जा सकते हैं।

दिलकश

कुछ दीगर कहें तो इन दिनों दाल-दलहन के भाव किसी की दाल गलने नहीं दे रहे हैं तो रसोई से दालचीनी दाल-दलिया, दालमोठ, दोप्याज़ा भी अपनी दिक्कतें दिखवा दिमाग का दही कर दिमाग चट कर जाते हैं। देह के लिए यह दिखावटी दिखावा नहीं है। दिग्-दिगंतर तक इन दिनों इसकी चर्चा है। यह वस्तुस्थिति दिग्भ्रमित कर सकती है। पर दिगंबर होकर भी दिग्विजय हासिल की जा सकती है। दिनकर बनने के लिए रोज़ की दिनचर्या में अटक कर नहीं चल सकता। दिलकश बनने के लिए दिन-रात मेहनत करने वाला दिनमान कहलाता है, ऐसे लोग दियासलाई लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलते। ऐसा नहीं कि आज दिनांक तक कर लिया और फिर अगले दिसंबर तक दिनोंदिन वही दिनानुदिन। दीपक की तरह दिव्य है द जिसके दीदार हो जाएँ तो दीन-दुनिया से उबर जाए। दीवानगी की दरवाज़ा खोल दीजिए तब दोगुनी खुशी मिलेगी।

द से दोस्ती

द को दीमक की तरह चाट मत जाइए, वरना दंड दे देगा। दीर्घावधि तक इसे खंगालिए। द किसी को दोष नहीं देता। इससे दोस्ती कर लीजिए और दोहे की तरह रट दीर्घसूत्री कार्यक्रम बना दीर्घायु पा लीजिए। यह बात दो टूक लग सकती है, दोतरफ़ा, दुधारी तलवार नहीं, न ही यह दोनाली की बंदूक है। भरी दुपहरी दोपाया लोगों के दौड़ते-भागते दोमंज़िले से निकल दोराहे पर दुपहिया पर जाने जैसी फटाफट बातें हैं। न तो ये दोयम है न दो मुँही, न दो रंगी, न दोरुखी, न दोलायमान।

मुहावरें

दृढ़ता से कई मुहावरें द देता है जैसे दाहिना हाथ होना, दबी ज़बान में कहना, दम अटकना, दम घुटना, दम तोड़ना, दम फूलना, दम भरना, दम लेना, दम निकलना, दर दर की ठोकरें खाना, दरार पड़ना, दरार भर जाना, दलदल में फँसना, दाँत काटी रोटी होना, दाँत खट्टे करना, दाँतों तले अँगुली दबाना, दाँत में जीभ सा होना, दाई से पेट छिपाना, दाग लगाना, दाग धोना, दाद देना, दाना पानी उठना, दाना पानी छोड़ना, दाने दाने को मोहताज होना, दाने दाने को तरसना, दाम चुकाना,दाम भरना, दाम खड़ा करना, दाल न गलना, दाल में कुछ काला होना, दिन में तारे दिखाई देना, दिन को दिन रात को रात न समझना, दिन दूना रात चौगुना बढ़ना, दिन काटना या पूरे करना, दिन चढ़ना, दिन फिरना, दिमाग खाना या चाटना, दिमाग खाली होना, दिमाग लड़ाना, दिल कड़ा करना, दिल के फफोले फोड़ना, दिल जमना, दिल ठिकाने होना, दिल देना, दिल में फर्क आना, दिल से दूर करना, दिल्लगी करना, दिवाला निकलना, दीठ मिलाना, दीठ उतारना, दीदा लगना, दाँत पीसना, दौड़ धूप करना, दोनों हाथों में लड्डू, दुर्गंध पसरना और बताइए आपको कुछ याद आते हों तो....